बुद्ध और यज्ञोपवीत


कई नवबौद्ध जनेऊ को पाखंड बताते हैं और मजाक बनाते हैं। लेकिन बुद्ध की अधिकांश मुर्तियॉ जनेऊ धारण किए मिल जाएगी जिनमें ये बुद्धगया से ली गई मुर्ति की प्रतिलिपि में हैं। इन जनेऊ वाली मुर्तियों पर अधिकांश नवबौद्ध ये बोलते हैं कि ये मुर्तियॉ विकृत हो गई हैं और ये जनेऊ नही बल्कि चीवर की लाईन हैं। बुद्ध चीवर पहनते थे और मुर्तियों से चीवर मिट गया और उस चीवर की केवल लकीर रह गई हैं जो जनेऊ जैसी दिख रही हैं।  उनका ये तर्क अवश्य ही मान्य हो सकता था, यदि वे कोई इस सम्बन्छ में प्रबल प्रमाण प्रस्तुत् करते लेकिन हम इस सम्बन्ध में अवश्य ही एक प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि बुद्ध की प्रतिमाओं में प्राचीनकाल में जनेऊ बनाया जाता था। तो देखिए - 
ई. 1600 में सौभाग्य विजय नामक एक जैन यात्री बुद्धगया भ्रमण के लिए गया था। उसने अपनी एक पुस्तक में भ्रमण के समय बुद्ध की प्रतिमा के जो लक्षण गया की मुर्तियों को देख लिखे वो निम्न प्रकार हैं - 
"तिहाँथी बोधगया कोस त्रण छेरे। 
प्रतिमा बोधतणो नहि पार रें।।
जिन मुद्राथी विपरीत जाणज रे।
कण्ठ जनेऊ आकार रे।।" - तीर्थमाला स्तवन अध्याय20 पंक्ति 2-5 
यहाँ जेन यात्री ने स्पष्ट जनेऊ का उल्लेख किया हैं। अतः सिद्ध है कि बौद्ध प्रतिमाओं में जनेऊ बनाए जाते थे। अब जो जनेऊ पर मजाक करते है उन्हें पूर्व बौद्ध धम्म और उसकी मुर्तिकलाओं पर मजाक बनाना चाहिए। 

संदर्भित ग्रन्थ एवम् पुस्तकें -                                                                                                 
(1) बुद्ध मीमांसा - योगी मैत्रेय         

@Prashant Arya gadhe, 

Brahman gadhon ne yajyon me jitani gayen kaat ke khai hain utani kisi bhi samaj ke ligon ne nahi khaai hain!

Ye dekh le vedon ke praman:

१. ऋग्वेद १०-८६-१४
२. ऋग्वेद १०-८९-१४
३. ऋग्वेद १०-२८-३
४. ऋग्वेद १०-८०-१४
५. ऋग्वेद १०-७९-६
६. ऋग्वेद १०-९१-१४
७. ऋग्वेद १०-१६-९२
८. ऋग्वेद ६-१७-२७
९. ऋग्वेद १०-८६-१३
१०. ऋग्वेद ९-७९-४
११. ऋग्वेद ८-५-३८
१२. ऋग्वेद ९-१०-४
१३. ऋग्वेद १०-१६-७
१४. ऋग्वेद १-१६२-३
१५. ऋग्वेद २-१२६-९
१६. ऋग्वेद १-१६३-११
१७. ऋग्वेद १-१६-२
१८. यजुर्वेद ३५-२०
[१. ऋग्वेद १०-८६-१४ (इन्द्र देव का कथन 'यज्ञ करनेवाले यजमान मेरे लिए १५-२० बैल मारकर पकाते हैं, वह खाकर में ताकतवर हो जाता हूँ, वे मेरा पेट मद्य से भी भर देते हैं)
२. ऋग्वेद १०-८९-१४ (हे इन्द्र देव, जिस प्रकार गोवध स्थानपर गायोंको मारा जाता हैं उसीप्रकार आप के इस अस्त्र से मित्रद्वेषी राक्षस मर कर चिरनिद्रित हो जाने दो)
३. ऋग्वेद १०-२८-३ (हे इन्द्र देव, अत्रा कि कामनासे जिस वक्त आप के लिए हवन किया जाता हैं, उस वक्त यजमान पत्थरों पे जल्द से जल्द सोमरस तैयार करते हैं वह आप प्राशन करते हो, यजमान बैल का मांस पकाते हैं वो आप खाते हैं)
४. ऋग्वेद १०-८०-१४ (हे इन्द्र देव, आपने जो अस्त्र और बाण फेंककर राक्षसों कि कत्तल कि हैं, उनको कहा फेके? जिस प्रकार गोवध स्थल पर ही गाय कि कत्तल कि जाती हैं, इसप्रकार आपके इस अस्त्र से घायल हुए मित्रद्वेषी राक्षसों को पृथ्वीपर चिरनिद्रिस्त हो जाने दो)
५. ऋग्वेद १०-७९-६ (जिसप्रकार तलवार गाय के टुकड़े करती हैं)
६. ऋग्वेद १०-९१-१४ (जिस में घोड़ा, बैल, वशा गाय, बकरा इ. का हवन किया गया उस अग्निपर थोड़ा मद्य छिड़ककर मै मन से उनका स्तवन करता हूँ)
७. ऋग्वेद १०-१६-९२ (जो गायें देवो के यज्ञ के लिए खुद को अर्पण कर देते हैं, जो गायें आहुति सोम जानती हैं, उन्ह गायों को हे इंद्र देव, दूध से परिपूर्ण और संतती युक्त बनाकर हमारे लिए गौशाला में भेज दो)
८. ऋग्वेद ६-१७-२७ (हे इंद्र देव, सम्पूर्ण मरुत गण सम्मिलित होकर स्प्रेताद्वारा आपको वचनबद्ध कराते हैं और आपके वजह से पूषा और विष्णू देव शेकडों भैसों का पाक बनाते हैं, उसीप्रकार तीन यात्राएं पूरी करने के लिए मादक और वृत्र नाशक ऐसा सोम उसमे डाल देते हैं)
९. ऋग्वेद १०-८६-१३ (हे वृषकपी पत्नी, आप धन से पूर्ण, गुणों से पूर्ण और सुन्दर सुपुत्रवती हैं. आपके बैलों का इंद्र देव भक्षण करें, आपकी प्यारी और सुखकारक चीजों का बलि का आप भक्षण करें, इन्द्रे देव सर्वश्रेष्ठ हैं)
१०. ऋग्वेद ९-७९-४ (हे शोण, आपका परमअंश धुलोकात हैं, वहा से आपकी अंश पृथ्वीपर पर्वतोंपे गिर गये और उनके वृक्ष बन गये. बुद्धिमान लोग आपको हातों से चमड़ों के ऊपर पत्थर से रगड़ते हैं और पानी से धो डालते हैं)
११. ऋग्वेद ८-५-३८ (उन्ह वीर पुत्र नायकों कि संतती पृथ्वीपर जीवित हैं, मदद करनेवाले सारे उनके चारों दिशाए में हैं, वो चमड़े का इस्तेमाल करनेवाले हैं)
१२. ऋग्वेद ९-१० (सोमलता बेल का रस गाय के चमडिपर छानते हैं, पराक्रमी आदमी सोम शब्द का उच्चारण करके इंद्रपदपर विराजमान होता है)
१३. ऋग्वेद १०-१६-७ (हे मृतात्मा, तू धर्म के साथ अग्नि कि ज्वाला का कवच धारण कर. तू वपा और मांस से आच्छादित हो)
१४. ऋग्वेद १-१६२-३ (सभी देवताओं को काम आनेवाला बकरा, जगत्पोषक का ही अंश हैं, उसको शीघ्रगामी घोड़े के सामने लाया जाता हैं, इसलिए देवताओं के उत्कृष्ट भोजन के लिए घोड़े के साथ बकरे का मांस भी पकाना चाहिए)
१५. ऋग्वेद २-१२६-९ (घोड़ों का जो कच्चा मांस मक्खियां खाती हैं, काटने या साफ़ करते समय जो हत्यार को लगता हैं, या काटनेवालों के हात और नाख़ून से लगता हैं वो सब देवों के पास जाने दो)
१६. ऋग्वेद १-१६३-११ (हे घोड़ों, अग्नि में पकते वक्त तुम्हारे शरीर से जो रस निकलता हैं और उसका जो भाग हत्यार को चिपकके रहता हैं और मिट्टीमे गिर जाता हैं वो घास में मिश्रित ना हो जाए. देवता उसको खाने कि इच्छा कर रहे हैं, बलि का सारा भाग उनको ही मिले)
१७. ऋग्वेद १-१६-२ (घोड़ों को पकाते वक्त सारे सभी दिशाओं से देख रहे हैं, 'अच्छा सुगंध आ रहा हैं, देवों को अर्पण कीजिये' ऐसा जो कह रहे हैं, जो मांस भिक्षा कि कामना रखते हैं और वो मिलने के लिए उधर बैठे हुए हैं, उनका भाग भी हमें ही मिले).
१८. यजुर्वेद ३५-२० (पितरों के लिए आप ख़ास गाय का चमड़ा लेकर जाओ, उस ख़ास चमड़ी से निकलनेवाली वपा का प्रवाह पितरों कि तरफ बहता जाये और उन पितरों के लिए दान करने वालों कि सारी कामनाएं पूरी हो जाये).

भाषांतर / अनुवाद / भाष्य (सायणाचार्य / डा. गंगा सहाय शर्मा / डा. एस. एल. सागर).]

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